* * * पटना के पैरा-मेडिकल संस्थान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एजुकेशन एंड रिसर्च जयपुर कें निम्स यूनिवर्सिटी द्वारा अधिकृत कएल गेल। *

Friday 12 February, 2010

बेमन सं भ रहल अछि शिक्षा सुधारक प्रयास

डीम्ड विश्वविद्यालयों पर रोहित कौशिक के विचार हाल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों की मान्यता समाप्त करने का फैसला लिया जिस पर उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय का यह फैसला स्वागत योग्य था, लेकिन सवाल यह है कि शिक्षा को व्यापार बनाने के लिए जिम्मेदार कौन है? नब्बे के दशक में शुरू हुई उदारीकरण की आंधी ने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। हालांकि इससे पहले भी कुछ राज्यों में उच्च शिक्षा निजी हाथों में जा चुकी थी, लेकिन नब्बे के दशक में व्यापक रूप से पूरे देश में शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने का काम किया गया। सरकार ने खुद खाओ, खुद कमाओ की नीति के तहत शिक्षा का निजीकरण करते हुए गर्व का अनुभव किया। सरकार की इस नीति से अनेक औद्योगिक घराने शिक्षा के क्षेत्र में कूद पडे़। हमारे देश में शुरू से ही शिक्षा प्रदान करने का प्रायोजन धर्मार्थ माना गया है। इसलिए शिक्षा के निजीकरण ने एक नए किस्म के व्यापार को जन्म दिया जिसमें मुनाफा तो पूरा होने के साथ-साथ व्यापारी की छवि मुनाफा कमाने वाले की नहीं, बल्कि उपकार करने वाले की थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक के बाद एक सरकारें इसी नीति पर चलती रहीं। संप्रग सरकार के पिछले कार्यकाल में धड़ल्ले से डीम्ड विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई। सरकार बार-बार बताती रही कि हमारे देश के हालात को देखते हुए अभी और विश्वविद्यालय खोले जाने की जरूरत है। इस हड़बड़ी में शिक्षा की गुणवत्ता की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। दरअसल कई बार जानबूझकर इन विसंगतियों को नजरअंदाज किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षा जगत से जुडे़ अधिकारियों की भूमिका भी संदिग्ध रही है। अपना मुंह बंद रखने और अवैध रूप से मान्यता देने के लिए शिक्षण संस्थाओं द्वारा इन अधिकारियों को मोटी रकम दी जाती है। कुछ समय पहले अवैध रूप से मान्यता देने के लिए रिश्वत लेने के आरोप में एआईसीटीई के उपनिदेशक को गिरफ्तार कर लिया गया था। स्पष्ट है कि शिक्षा जगत में फैले भ्रष्टाचार को बढ़ाने में इस क्षेत्र से जुडे़ अधिकारी और विभिन्न समितियों में स्थान प्राप्त प्रोफेसर भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डीम्ड विश्वविद्यालयों की अवधारणा को संप्रग सरकार ने ही बढ़ावा दिया था। अब यही सरकार 44 संस्थानों की मान्यता रद करते हुए इस अवधारणा को समाप्त करने की मंशा जता रही है, लेकिन क्या इस कदम से शिक्षा की गुणवत्ता सुधर पाएगी? मान्यता रद किए गए इन विश्वविद्यालयों को शिक्षण संस्थान के रूप में कार्य करने की अनुमति दी गई तो फिर इन संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता की गारंटी कौन लेगा? आखिरकार इससे नुकसान तो विद्यार्थियों को ही होगा। अच्छा होता कि सरकार इन विश्वविद्यालयों को नोटिस देकर सुधरने का एक मौका देती। इनमें से अनेक विश्वविद्यालयों ने आरोप लगाया है कि उनके यहां शिक्षा की गुणवत्ता तथा अन्य मानक जांचने के लिए कोई समिति आई ही नहीं। ऐसे में किस आधार पर उनकी मान्यता रद की गई? बहरहाल, कहीं न कहीं चूक जरूर हुई है जिसका खामियाजा लाखों विद्यार्थियों को उठाना पडे़गा। ऐसे विश्वविद्यालयों की डिग्रियों की कितनी साख रह पाएगी, यह कहना मुश्किल है। सवाल यह है कि अगर इतने समय से ये विश्वविद्यालय मानकों के अनुसार नहीं चल रहे थे तो क्या इसकी जानकारी सरकार को नहीं थी? दरअसल सरकार एवं अधिकारियों को यह सब जानकारी थी लेकिन अधिकांश संस्थानों के मालिक विभिन्न राजनेता और अन्य प्रभावशाली लोग हैं इसलिए इस मामले में जानबूझकर चुप्पी साध ली गई। मान्यता रद करने का फैसला लेने के बाद भी कपिल सिब्बल की सरकार दोषमुक्त नहीं हो जाती। दरअसल, ऐसे मामलो में हर कोई अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहता है। यूजीसी ने विद्यार्थियों को जानकारी के लिए फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराई है। सवाल यह है कि जब यूजीसी और सरकार को फर्जी विश्वविद्यालयों की जानकारी है तो उनके संचालकों की धरपकड़ कर इन विश्वविद्यालयों को बंद क्यों नहीं कराया जाता? फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची प्रकाशित कर देने मात्र से ही यूजीसी और सरकार अपनी जिम्मेदारी से बरी नहीं हो जाते। दरअसल, हमाम में सब नंगे हैं। इस दौर में शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए एक गंभीर पहल की जरूरत है। देखना है कि सर्वोच्च न्यायालय किस नतीजे पर पहुंचता है?
(रोहित कौशिक,दैनिक जागरण,12.2.10)

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