अमरीकी विश्वविद्यालय केर विजिटिंग प्रोफेसर डॉ. निरंजन कुमार अमरीकी व्यवस्था सं तुलना करैत बता रहल छथि जे केना भारत मे शिक्षा-व्यवस्था कें पटरी पर आनल जा सकैछः
आमिर खान की फिल्म थ्री इडियट्स ने सफलता की जैसी धूम मचाई,वह अभूतपूर्व है। इस फिल्म ने एक बार फिर साबित कर दिया कि एक अच्छी थीम पर अच्छे ढंग से बनाई गई फिल्म निश्चित रूप से कामयाब होती है। और यही इस फिल्म का संदेश भी है कि सफलता के पीछे मत भागो,उत्कृष्टता के लिए मेहनत करो, कामयाबी खुद तुम्हारे पीछे दौड़ी चली आएगी। तुम वही करो, वही पढ़ो जो तुम करना चाहते हो या पढ़ना चाहते हो,जिसमें तुम्हारा दिल लगता हो। साथ ही यह भी कि रट्टूतोता बनने की जगह विषय को समझने की कोशिश करो। एक मनोरंजक अंदाज में पूरी फिल्म न सिर्फ हमारी शिक्षा प्रणाली को आईना दिखाती है,बल्कि एक तरह से उस पर टिप्पणी करती है। बहुत ही कलात्मक और मार्मिक तरीके से फिल्म बताती है कि थ्री (तीन) इडियट्स फिल्म के तीन मुख्य किरदार नहीं, बल्कि तीन सबसे बड़े इडियट हैं-हमारी शिक्षा व्यवस्था,इसके कर्ता-धर्ता और हमारा समाज। इन्होंने हमारे बच्चों पर इतना दबाव बना दिया है,जिसका दुष्परिणाम कभी खराब रिजल्ट होता है तो कभी डिप्रेशन और कभी तो आत्महत्या तक भी। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों ने दिखाया भी है कि हम दुनिया के उन देशों में हैं,जहां विद्यार्थियों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की दर अधिकतम है। फिल्म का मुख्य पात्र रैंचो बार-बार कहता है, तुम वही बनने की कोशिश करो, जिसमे तुम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकते हो। इससे तुम अपना और समाज दोनों का भला कर सकोगे। ठीक बात है। हो सकता है कि कोई व्यक्ति बहुत प्रतिभाशाली हो, बहुत बुद्धिमान हो, फिर भी वह हर जगह अच्छा नहीं कर सकता। यह जरूर है कि वह किसी भी क्षेत्र में जाए, अच्छा ही करेगा, लेकिन उसका सर्वश्रेष्ठ उसी क्षेत्र में अभिव्यक्त होगा, जिसमें उसका मन लगता हो। क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर संगीतकार रहमान नहीं बन सकते हैं और रहमान मिसाइल वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम नहीं हो सकते। मनोवैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि प्रतिभा या बुद्धि के अनेक आयाम होते हैं। जरूरत है कि इस बात की पहचान हो कि कौन किस क्षेत्र में अच्छा करेगा और फिर इसी हिसाब से आगे बढ़ने के लिए मेहनत करनी चाहिए। इससे न केवल उस व्यक्ति, समाज और देश की तरक्की होगी, बल्कि वह इंसान खुश भी रहेगा। यह अनायास नहीं है कि विकसित देशों जैसे कि अमेरिका,यूरोप या जापान आदि में स्कूली जीवन से ही विद्यार्थियों की सहज प्रतिभा को पहचान कर उसे उभारने की कोशिश की जाती है। मैंने इन देशों के लोगों को देखा कि वे अपने बच्चों पर अपनी इच्छाएं ज्यादा नहीं थोपते। फिर उनके स्कूलों में भी बच्चों को इतने विविध तरह के अवसर मिलते हैं कि बच्चे को भी धीरे-धीरे अपनी रुचि का क्षेत्र समझ में आने लगता है और उसी में उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह के अवसर और संभावनाएं कमोबेश लगभग सभी बच्चों को उपलब्ध कराने की कोशिश की जाती है। अमेरिका का ही उदाहरण देखें। वैसे तो वहां पर तीन तरह के स्कूल होते हैं। एक तो पब्लिक (सरकारी या सार्वजनिक) स्कूल, दूसरे प्राइवेट स्कूल और तीसरे चार्टर (एक तरह से सार्वजनिक) स्कूल। पब्लिक स्कूलों में मुफ्त शिक्षा मिलती है। चार्टर स्कूल भी कमोबेश इसी तरह के होते हैं। हां प्राइवेट स्कूल में जरूर महंगी फीस चुकानी पड़ती है। यहां यह बताना जरूरी है कि इन पब्लिक स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता और विभिन्न प्रकार के शैक्षणिक और पाठ्यक्रम से इतर कार्यक्रमों और प्रशिक्षणों के अवसर प्राइवेट स्कूलों से कम नहीं होते हैं। अपने देश के संदर्भ में बात करें तो हमारी स्थिति दयनीय नजर आती है। थ्री इडियट्स की कहानी हमारे अधिकांश बच्चों के लिए एक ऐसी कहानी या कल्पना है,जो सिर्फ सपनों में सच हो पाती है। तीन दोस्तों में से एक देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कालेज की पढ़ाई छोड़कर फोटोग्राफर बनने चला जाता है। यह हमारे समाज में एक अनोखी बात ही कही जाएगी। दरअसल, हमारे यहां कई तरह की समस्याएं हैं। हर बच्चे को वैसी सुविधाएं और अवसर नहीं प्राप्त हैं कि उसकी प्रतिभा को पनपने का अवसर मिल सके। उनके यहां स्कूलों के स्तरों में बहुत बड़ा अंतर नहीं है, जबकि अपने यहां सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में जमीन-आसमान का फर्क है। एक तरफ तो दून स्कूल, वेलहम, सिंधिया स्कूल और मेयो कॉलेज जैसे बहुत उच्चकोटि के स्कूल हैं, जिनमें हर तरह का विश्वस्तरीय ज्ञान और कौशल प्राप्त किया जा सकता है, पठन-पाठन में कंप्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल होता है। दूसरी तरफ हमारे अनेक सरकारी विद्यालयों में बैठने तक की जगह नहीं होती है। अनेक गांवों और छोटे कस्बों में तो पेड़ के नीचे भी स्कूल चलते हैं। फिर काफी बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की भी है,जो एक तरह से बाल श्रमिक हैं और स्कूल का मुंह भी नहीं देख पाते हैं। तब इन बच्चों को कैसे समझ आएगा कि उन्हें क्या बनना चाहिए या किस क्षेत्र में उनकी प्रतिभा है। भारत सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार 14-18 आयु के बच्चों में से दो तिहाई के करीब उच्च माध्यमिक स्कूल की देहरी तक नहीं पहुंच पाते हैं। 14की उम्र तक या आठवीं क्लास तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 पारित किया गया है और सर्वशिक्षा अभियान चलाया जा रहा है,लेकिन इसकी गुणवत्ता का स्तर क्या है?फिर किस तरह ये बच्चे थ्री इडियट्स के संदेश को साकार कर सकेंगे। तब क्या यह समझा जाए कि थ्री इडियट्स हमारे देश के सिर्फ उच्च और उच्च-मध्य वर्ग या अधिक से अधिक मध्य-मध्य वर्ग के बच्चों के लिए ही एक सार्थक फिल्म है? क्या हमारे नेता,अधिकारी और नीति निर्धारक समाज कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए थ्री इडियट्स फिल्म को अर्थपूर्ण बनाने के लिए कभी कोई ईमानदार प्रयास करेंगे?
(दैनिक जागरण,21.2.1010)
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