अब तक के जीवन में मुझे एक ही बात का अफसोस है, मैं डॉक्टर नहीं बन सका। इसलिए जब किसी विद्वान के नाम के पहले डॉक्टर लगा देखता हूं, तो हल्की-सी ईष्र्या होती है। जिसने भी एमए किया है, अगर वह पीएचडी नहीं करता, तो उसका जीवन बेकार है। मैंने हिंदी में एमए किया और पीएचडी भी शुरू की, पर पत्रकारिता में अवसर मिल जाने पर शोध कार्य त्याग दिया। बहुत बाद में, आधा से ज्यादा जीवन बिताने के बाद, जब यह सत्य सामने आया कि पत्रकारिता की कोई भी नौकरी स्थायी या स्थिर नहीं है, तब मुझे दुख हुआ कि मैं शिक्षक क्यों नहीं बना? पत्रकारिता करते हुए मैंने जितने भी काम किए, वे सभी काम मैं किसी कॉलेज में पढ़ाते हुए कर सकता था। उन दिनों कॉलेज में पढ़ाने के लिए एमए होना काफी होता था। कोई पीएचडी भी हो, तो उसे वरीयता मिलती थी, पर डॉक्टरेट की अनिवार्यता नहीं थी। जब से यह अनिवार्यता हुई है, तब से शोध का हश्र क्या हुआ है, यह हाल में एक साहित्यिक गोष्ठी में उजागर हुआ। अधिकतर शोध कट-पेस्ट या हाईस्कूल स्तर की विद्वत्ता का मामला हो गया है, यह जानते हुए भी मुझे पता नहीं था कि हालात इतने खराब हो गए हैं कि पीएचडी होने का मतलब मूर्ख होना भी हो सकता है। सबसे पहले वह लतीफा सुनाता हूं जो उस साहित्य प्रेमी मंडल में बड़े आत्मविश्र्वास के साथ पेश किया गया। एक अमेरिकी घोड़े पर सवार हो कर कहीं जा रहा था कि उसकी नजर एक भवन के सामने लगे इस बोर्ड पर पड़ी। बोर्ड पर लिखा था -यहां पीएचडी प्रदान की जाती है। अमेरिकी ने सोचा कि क्यों न पीएचडी ले ली जाए। भीतर गया, तो मालूम हुआ कि इतने डॉलर देने पर पीएचडी की डिग्री हाथोंहाथ मिल जाएगी। उसने तुरंत डिग्री खरीद ली। बाहर आया तो उसके मन में आया कि क्यों न अपने घोड़े के लिए भी एक डिग्री ले ली जाए। वह काउंटर पर गया और अपने घोड़े के लिए डिग्री की मांग करने लगा। जवाब में कहा गया-यहां घोड़ों को नहीं, सिर्फ गधों को पीएचडी प्रदान की जाती है। भारत में इस समय कितने गधे पीएचडी की डिग्री लिए घूम रहे हैं, यह कहना मुश्किल है। पीएचडी के लिए अनिवार्य शर्त यह है कि या तो कुछ नए तथ्यों का संधान किया जाए या उपलब्ध तथ्यों की नई व्याख्या की जाए। सभा में इस विषय पर बोलने वाले चारों विद्वानों का कहना था कि अधिकांश शोधार्थियों को शोध के बुनियादी फॉर्मेट तक का पता नहीं होता। यहां तक कि जिन पुस्तकों का संदर्भ दिया जाता है, उनके प्रकाशन वर्ष का जिक्र तक नहीं किया जाता। अधिकांश शोध कृतियां परिचयात्मक होती हैं। उनमें न तो कोई विश्लेषण होता है, न कोई दृष्टिकोण होता है। एक विद्वान ने कहा, ऐसा क्यों न हो, क्योंकि अधिकतर शोध निर्देशक स्वयं इस मामले में अज्ञानी होते हैं। उनके अनुसार, जब एक-एक अध्यापक पचास-पचास, सौ-सौ शोध कराता है, तो शोध का स्तर गिरना तय है। उस सभा में एक अशोभनीय घटना भी हुई। आयोजन में जिस शोध कृति को पुरस्कृत किया गया, स्वयं उसके बारे में बताया गया कि वह मात्र परिचयात्मक स्तर की है, उसमें कोई विश्लेषण नहीं है। पुरस्कृत शोधकर्ता वहीं बैठी हुई थी। यह सुनकर उसे कितनी ठेस लगी होगी, इसका अनुमान किया जा सकता है। यह सब सुनने के बाद सबसे ज्यादा गुस्सा विश्र्वविद्यालय अनुदान आयोग पर आया, जिसने कॉलेज में पढ़ाने के लिए पीएचडी की डिग्री को अनिवार्य बना रखा है। शोध करने के लिए एक विशेष मनोवृत्ति की जरूरत होती है। जिस तरह सभी कविता या नाटक नहीं लिख सकते, उसी तरह सभी शोध नहीं कर सकते। लेकिन किसी को लेBरर बनना हो, तो शोध करना उसके लिए आवश्यक हो जाता है। यह मजबूरी ही अकादमिक क्षेत्र में पता नहीं कितने गुल खिला रही है। ऊपर से अब एमफिल का चक्कर शुरू हो गया है। विश्र्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह सारी योजना बनाते समय शायद यह सोचा होगा कि इससे उच्च शिक्षा का स्तर और उच्च होगा। वास्तव में स्तर और गिरा है। एमए में जो अंक दिए जाते हैं, उनका कुछ तो वस्तुपरक आधार होता ही है। हालांकि इस स्तर पर भी धांधली होती है और षड्यंत्र करके या पैसा खिलाकर फर्स्ट क्लास फर्स्ट का तमगा हासिल कर लिया जाता है, पर यह एक आपवादिक स्थिति है। सामान्यत: तो योग्यता के अनुसार ही अंक मिलते हैं। लेकिन शोध कृति का मूल्यांकन बिलकुल वैयक्तिक होता है। यहां तक होता है कि जिस थीसिस को एक एग्जामिनर ने खारिज कर दिया, वह किसी और से पास करा लिया जाता है और डिग्री प्रदान कर दी जाती है। चूंकि शोध की अनिवार्यता है, इसलिए एक ही विषय पर दर्जनों संस्थानो में शोध चलता रहता है। कई बार एक ही थीसिस दूसरे के नाम पर पेश कर दी जाती है। इसलिए शिक्षा के स्तर को सुधारने की दिशा में सबसे पहला काम होना चाहिए पीएचडी की अनिवार्यता को विदा करना। अच्छा शिक्षक बनने के लिए थीसिस लेखक होना कतई जरूरी नहीं है। इसके बाद भी शोध होंगे, लेकिन यह वही लोग करेंगे जिनकी इस क्षेत्र में वास्तविक रुचि होगी। केवल पन्ने कागज करने वाले लोग छूट जाएंगे।
(साभारःदैनिक जागरण,20 दिसम्बर,2009)
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