आधा दर्जन भाषाई अकादमी कें एक छत के नीचा आनिकए एक भाषाई अकादमी के गठन केर प्रस्ताव मंजूर भ गेल अछि। काल्हि पटना मे भेल बैठक मे, अकादमी सभ विभागीय प्रस्ताव सं सहमति व्यक्त कएलक। मैथिली अकादमी, भोजपुरी अकादमी, मगही अकादमी, संस्कृत अकादमी, दक्षिण भारतीय भाषा संस्थान तथा बांग्ला अकादमी कें एक छत के नीचां आनबाक प्रस्ताव पर सहमति भेटलाक बाद आब चुनौती छैक अकादमी सभहक गरिमा बहाल करबाक। जाहि अकादमी मे पुस्तक प्रकाशन केर काज ठप्प छैक, ओतय ई फेर शुरू हएत। मैथिली कें यूपीएससी आ बीपीएससी केर परीक्षा में विषय के तौर पर शामिल कएल गेल छैक। तें,मैथिली अकादमी कें निर्देश देल गेल छैक कि अकादमी विश्वविद्यालय सभहक सिलेबस में शामिल मैथिली पोथी केर साज-सज्जा पर ध्यान दए ताकि ओकर ब्रिकी बढि सकए। भोजपुरी अकादमी कें सेहो भोजपुरी भाषाक किताब केर प्रकाशन आ ओकर बिक्री सुनिश्चित करए लेल कहल गेल छैक।
एहि विषय पर आजुक दैनिक जागरण केर मुजफ्फरपुर संस्करण केर संपादकीय देखूः
कोई छह साल पहले एक फिल्म आयी थी पहेली। कहानी राजस्थान के परिवेश पर थी और लेखक थे प्रसिद्ध कथाकार विजयदान देथा। उसमें नायक (शाहरुख खान) दोहरी भूमिका में हैं। इनमें एक चरित्र वास्तविक और दूसरा भूत होता है। असली की पहचान कठिन होती है। इसके लिए लोग राजा के पास जा रहे होते हैं। रास्ते में मिला एक गड़ेरिया (अमिताभ बच्चन) कहता है कि असली-नकली की पहचान जैसा आसान काम तो वही कर सकता है, फिर राजा के पास जाने की क्या जरूरत? लोग उसकी सेवा लेने को राजी हो गए। काम की शुरुआत करते हुए गड़ेरिया पूछता है कि आखिर मुश्किल क्या है? क्या ये दोनों बेजबान हैं? बोल नहीं सकते कि कौन असली है? अपने प्रश्नों का खुद ही उत्तर देते हुए गड़ेरिया कहता है- समझ गया, चूंकि ये बोल सकते हैं, इसलिए झूठ भी बोल सकते हैं और यही पहेली है। भाषा मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, इसलिए हमेशा इसका अच्छा ही इस्तेमाल नहीं होता। यह लोगों को जोड़ती है, तो द्वेषपूर्ण उपयोग से यही दिलों को तोड़ती भी है। जिस मराठी भाषी समुदाय से आने वाले पं बाबूराव विष्णु पराड़कर के योगदान से हिंदी पत्रकारिता समृद्ध हुई, वही मराठी आज हिंदी भाषियों को निशाना बनाने का हथियार बनाई जा रही है। भाषा अन्तर-प्रांतीय संवाद की जगह वैमनस्य फैलाने में प्रयुक्त हो रही है। अब एक ही प्रदेश के भीतर बोली जाने वाली भाषाएं (बोलियां) भी यदि इस घृणित खेल के आंचलिक संस्करण में शामिल दिखें, तो चिंतित होना स्वाभाविक है। बिहार में मानव संसाधन विकास विभाग ने भाषाओं के संवर्द्धन के लिए 1987 में एक भाषाई अकादमी स्थापित करने का मन बनाया था। राजनीति के चलते मामला लगातार खटाई में पड़ा रहा। सितंबर 2009 में फिर इस आशय का फैसला लिया गया था, मगर दो अकादमियों की असहिष्णुता के चलते प्रस्ताव फिर ठंडा पड़ गया। मैथिली,भोजपुरी, मगही,संस्कृत तथा बांग्ला अकादमी और दक्षिण भारतीय भाषा संस्थान के निदेशक इस पहल के विरुद्ध थे। बुधवार को विभिन्न अकादमियों के पदाधिकारियों की बैठक में आखिरकार इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई। ये अकादमियां एक प्रशासनिक ढांचे और एक परिसर में काम करने को राजी हो गई हैं। इससे इन भाषाओं का तो भला होगा ही, अलग-अलग रहने के चलते उपजी संवादहीनता भी कम होगी। जबान का गुलिस्तां कांटे उगाने के लिए नहीं, खुशबू की क्यारियां लगाने के लिए होता है। एक भाषा अकादमी यह मकसद पूरा कर सकती है।
एहि विषय पर आजुक दैनिक जागरण केर मुजफ्फरपुर संस्करण केर संपादकीय देखूः
कोई छह साल पहले एक फिल्म आयी थी पहेली। कहानी राजस्थान के परिवेश पर थी और लेखक थे प्रसिद्ध कथाकार विजयदान देथा। उसमें नायक (शाहरुख खान) दोहरी भूमिका में हैं। इनमें एक चरित्र वास्तविक और दूसरा भूत होता है। असली की पहचान कठिन होती है। इसके लिए लोग राजा के पास जा रहे होते हैं। रास्ते में मिला एक गड़ेरिया (अमिताभ बच्चन) कहता है कि असली-नकली की पहचान जैसा आसान काम तो वही कर सकता है, फिर राजा के पास जाने की क्या जरूरत? लोग उसकी सेवा लेने को राजी हो गए। काम की शुरुआत करते हुए गड़ेरिया पूछता है कि आखिर मुश्किल क्या है? क्या ये दोनों बेजबान हैं? बोल नहीं सकते कि कौन असली है? अपने प्रश्नों का खुद ही उत्तर देते हुए गड़ेरिया कहता है- समझ गया, चूंकि ये बोल सकते हैं, इसलिए झूठ भी बोल सकते हैं और यही पहेली है। भाषा मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, इसलिए हमेशा इसका अच्छा ही इस्तेमाल नहीं होता। यह लोगों को जोड़ती है, तो द्वेषपूर्ण उपयोग से यही दिलों को तोड़ती भी है। जिस मराठी भाषी समुदाय से आने वाले पं बाबूराव विष्णु पराड़कर के योगदान से हिंदी पत्रकारिता समृद्ध हुई, वही मराठी आज हिंदी भाषियों को निशाना बनाने का हथियार बनाई जा रही है। भाषा अन्तर-प्रांतीय संवाद की जगह वैमनस्य फैलाने में प्रयुक्त हो रही है। अब एक ही प्रदेश के भीतर बोली जाने वाली भाषाएं (बोलियां) भी यदि इस घृणित खेल के आंचलिक संस्करण में शामिल दिखें, तो चिंतित होना स्वाभाविक है। बिहार में मानव संसाधन विकास विभाग ने भाषाओं के संवर्द्धन के लिए 1987 में एक भाषाई अकादमी स्थापित करने का मन बनाया था। राजनीति के चलते मामला लगातार खटाई में पड़ा रहा। सितंबर 2009 में फिर इस आशय का फैसला लिया गया था, मगर दो अकादमियों की असहिष्णुता के चलते प्रस्ताव फिर ठंडा पड़ गया। मैथिली,भोजपुरी, मगही,संस्कृत तथा बांग्ला अकादमी और दक्षिण भारतीय भाषा संस्थान के निदेशक इस पहल के विरुद्ध थे। बुधवार को विभिन्न अकादमियों के पदाधिकारियों की बैठक में आखिरकार इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई। ये अकादमियां एक प्रशासनिक ढांचे और एक परिसर में काम करने को राजी हो गई हैं। इससे इन भाषाओं का तो भला होगा ही, अलग-अलग रहने के चलते उपजी संवादहीनता भी कम होगी। जबान का गुलिस्तां कांटे उगाने के लिए नहीं, खुशबू की क्यारियां लगाने के लिए होता है। एक भाषा अकादमी यह मकसद पूरा कर सकती है।
No comments:
Post a Comment