6 मार्च,2010 केर नवभारत टाइम्स मे,टी.के.अरूण जी कें एक गोट आलेख प्रकाशित भेल अछि। एहि मे,मैथिली आ भोजपुरी सन-सन भाषा कें स्वतंत्र अस्तित्वक मान्यता केर परिप्रेक्ष्य मे,हिंदीक भविष्यक आकलन कएल गेल छैक। देखूः
"हिंदी अखबारों के पाठकों में जबर्दस्त बढ़ोतरी और हिंदीभाषी की श्रेणी में डाले जाने वाले राज्यों की आबादी में लगातार हो रही वृद्धि को देखते हुए इस लेख के शीर्षक के तौर पर उठाया गया सवाल पहली नजर में हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन इसकी गंभीरता को समझने के लिए दो तथ्यों पर गौर करना चाहिए। एक, दिल्ली में हिंदी फिल्मों का एक भी हिंदी में लिखा पोस्टर नजर नहीं आता। दो, लखनऊ के एक प्रकाशक ने मुझे बताया कि हिंदी कविताओं की किताब का प्रिंट ऑर्डर होता है पांच सौ। मानना पड़ेगा कि यह संख्या काफी कम है, खासकर उस भाषा के लिए, जिसके बारे में दावा है कि वह 42 करोड़ से ज्यादा लोगों की भाषा है।
अब हमें इस सच का सामना करना चाहिए और सच यह है कि हिंदी अपेक्षाकृत एक नई और कृत्रिम भाषा है। ऐन हिंदीभाषी क्षेत्र के बीचों बीच से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने जब डलहौजी को पत्र लिखा था तो वह हिंदी में नहीं, फारसी में था। और उसके करीब एक सदी बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी को जब वह प्रसिद्ध पत्र लिखा -'एक पिता का पत्र बेटी के नाम' - तो वह भी हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में लिखा गया।
वित्त-वाणिज्य की भाषा अंग्रेजी
हिंदीभाषी क्षेत्रों के कई शहरों में हिंदी कवियों से लेकर उनके घर काम करने वाली बाइयां तक- सबके सब जिस भाषा में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं वह हिंदी नहीं, बल्कि अंग्रेजी है। अंग्रेजी मीडियम के स्कूल इस पूरे इलाके में देर से आए मॉनसून के बाद उगने वाली खर-पतवार की तरह उग आए हैं।
समस्या अंग्रेजी की वैश्विक अपील की ही नहीं, इससे भी आगे की है। चूंकि अंग्रेजी वैश्विक वित्त और वाणिज्य की भाषा है, इसलिए अच्छी नौकरियों के लिए अंग्रेजी पर अधिकार होना जरूरी हो गया है। और, भारत में ऐसी मान्यता है कि जब तक बच्चे बा-बा ब्लैक शीप.. न बोलने लगें, वे कभी अंग्रेजी में पारंगत नहीं हो सकते। इसलिए भारत में स्थानीय भाषाओं की कीमत पर भी उस भाषा को अपनाने की प्रवृत्ति तेज हो रही है, जो नई पीढ़ी को वैश्वीकरण की दुनिया में प्रवेश दिला सकती है।
सवाल हिंदी के आभामंडल का
हिंदी के साथ एक और संकट है -भोजपुरी और मैथिली जैसी कथित बोलियों का स्वतंत्र भाषा के तौर पर उभरना। इन भाषाओं के लोग नहीं चाहते कि उनकी भाषा को हिंदी की एक बोली के रूप में पहचाना जाए। वे अपनी भाषा को एक स्वतंत्र भाषा मानते हैं। भोजपुरी फिल्मों ने हिंदी फिल्मों से अलग न केवल अपनी खास पहचान बनाई है, बल्कि काफी लोकप्रियता भी हासिल की है, जो इस रुझान का एक और संकेत है। मैथिली तो पहले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में एक अलग भाषा के रूप में शामिल की जा चुकी है। ऐसी दूसरी भाषाएं भी हैं, जिन्हें आज हिंदी की बोली के रूप में जाना जाता है। कल को ये भाषाएं स्वतंत्र भाषा के रूप में उभरती हुई हिंदी की छत्रछाया से बाहर आ सकती हैं। इसका हिंदी के आभामंडल पर क्या असर होगा?
हकीकत यह है कि आकाशवाणी छाप हिंदी, जो पूरे उत्तर भारत में आम बोलचाल में प्रचलित फारसी मूल वाले शब्दों की जगह जानबूझ कर संस्कृत शब्दों को रखती है, लंबे समय तक नहीं चल सकती। भाषाएं स्टूडियो में नहीं बनाई जा सकतीं, ये तो गलियों से ही निकल कर आती हैं। आकाशवाणी छाप हिंदी इस मायने में संस्कृत जैसी है, जो एक सीमित अभिजात तबके की भाषा थी और इसलिए समूह की भाषा के रूप में जीवित नहीं रह सकी। संस्कृत मतलब परिष्कृत और परिष्कृत भाषा सिर्फ एलीट या अभिजन ही बोल सकते हैं। संस्कृत नाटकों में महिलाओं और नाबालिग पात्रों को प्राकृत (आम लोगों की अपरिष्कृत भाषा) बोलते देखा जा सकता है, मुख्य पात्र भले देवभाषा में बात करते हों। महात्मा बुद्ध ने संस्कृत की बजाय उत्तर भारत में प्रचलित आम भाषाओं को चुना, क्योंकि वे अपनी बात आम लोगों तक पहुंचाना चाहते थे।
अगर साहित्यिक हिंदी को समर्थक नहीं मिल रहा है और हिंदी फिल्मों के भी हिंदी पोस्टर नहीं लग रहे हैं, तो फिर हिंदी का क्या भविष्य है? इस सवाल का जवाब दरअसल इन्क्लूसिव ग्रोथ और वैश्वीकरण से जुड़ा है। किसी भाषा का रुका हुआ विकास उस समाज के रुके हुए विकास का सूचक है। यह कोई संयोग नहीं है कि देश के जिन पिछड़े राज्यों के लिए बिमारू (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) शब्द चलाया गया, वे हिंदीभाषी राज्य हैं। जब भी किसी क्षेत्र में आबादी का एक छोटा सा ऊपरी हिस्सा आधुनिकता को अपनाता है, तो वह आधुनिकता की भाषा अपनाते हुए स्थानीय भाषा से दूरी बना लेता है। हिंदीभाषी इलाकों के साथ यही हुआ है। इन क्षेत्रों में आधुनिकता ऊपर के एक छोटे से हिस्से में आई और आबादी के इस हिस्से ने अंग्रेजी को अपना लिया। इसके उलट अगर पूरा समाज आधुनिक जीवनशैली को अपना ले तो उसकी अपनी भाषा विकसित होगी। इसीलिए आर्थिक बदलाव हिंदी के लिए महत्वपूर्ण है।
गढ़ेंगे नई हिंदी
जब ये क्षेत्र संरचनागत बदलावों से गुजरेंगे और लोग गैरपरंपरागत पेशों को अपनाएंगे तो उनके बीच के जातीय संबंध बदलेंगे, सामाजिक सत्ता का संतुलन बदलेगा और लोगों की भाषा बदलेगी, क्योंकि अपने जीवन के इन नए ट्रांजैक्शंस (लेनदेन) को व्यक्त करने के लिए लोगों को नए शब्द और नई अभिव्यक्तियां गढ़नी होंगी। बहुत सारे शब्द अंग्रेजी से लिए जाएंगे और उसमें कोई दिक्कत नहीं है।
नई प्रगति और समृद्धि से युक्त नए भौतिक जीवन का निर्माण करते हुए लोग नई भाषा भी गढ़ेंगे और यह नई हिंदी होगी। हिंदी अखबारों में भी इस प्रवृत्ति की झलक मिलेगी। लेकिन, बड़े पैमाने पर ऐसा हो, इसके लिए व्यापक स्तर पर लोगों को विकास प्रक्रिया में शामिल करना होगा। और यह काम हिंदीभाषी राज्यों में बुनियादी राजनीतिक सशक्तीकरण और प्रशासनिक सुधारों के बगैर संभव नहीं है। इन्क्लूसिव ग्रोथ की लड़ाई, माओवाद के खिलाफ लड़ाई और हिंदी की अस्मिता की लड़ाई - ये तीनों लड़ाइयां, दरअसल काफी हद तक एक ही हैं"।
"हिंदी अखबारों के पाठकों में जबर्दस्त बढ़ोतरी और हिंदीभाषी की श्रेणी में डाले जाने वाले राज्यों की आबादी में लगातार हो रही वृद्धि को देखते हुए इस लेख के शीर्षक के तौर पर उठाया गया सवाल पहली नजर में हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन इसकी गंभीरता को समझने के लिए दो तथ्यों पर गौर करना चाहिए। एक, दिल्ली में हिंदी फिल्मों का एक भी हिंदी में लिखा पोस्टर नजर नहीं आता। दो, लखनऊ के एक प्रकाशक ने मुझे बताया कि हिंदी कविताओं की किताब का प्रिंट ऑर्डर होता है पांच सौ। मानना पड़ेगा कि यह संख्या काफी कम है, खासकर उस भाषा के लिए, जिसके बारे में दावा है कि वह 42 करोड़ से ज्यादा लोगों की भाषा है।
अब हमें इस सच का सामना करना चाहिए और सच यह है कि हिंदी अपेक्षाकृत एक नई और कृत्रिम भाषा है। ऐन हिंदीभाषी क्षेत्र के बीचों बीच से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने जब डलहौजी को पत्र लिखा था तो वह हिंदी में नहीं, फारसी में था। और उसके करीब एक सदी बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी को जब वह प्रसिद्ध पत्र लिखा -'एक पिता का पत्र बेटी के नाम' - तो वह भी हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में लिखा गया।
वित्त-वाणिज्य की भाषा अंग्रेजी
हिंदीभाषी क्षेत्रों के कई शहरों में हिंदी कवियों से लेकर उनके घर काम करने वाली बाइयां तक- सबके सब जिस भाषा में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं वह हिंदी नहीं, बल्कि अंग्रेजी है। अंग्रेजी मीडियम के स्कूल इस पूरे इलाके में देर से आए मॉनसून के बाद उगने वाली खर-पतवार की तरह उग आए हैं।
समस्या अंग्रेजी की वैश्विक अपील की ही नहीं, इससे भी आगे की है। चूंकि अंग्रेजी वैश्विक वित्त और वाणिज्य की भाषा है, इसलिए अच्छी नौकरियों के लिए अंग्रेजी पर अधिकार होना जरूरी हो गया है। और, भारत में ऐसी मान्यता है कि जब तक बच्चे बा-बा ब्लैक शीप.. न बोलने लगें, वे कभी अंग्रेजी में पारंगत नहीं हो सकते। इसलिए भारत में स्थानीय भाषाओं की कीमत पर भी उस भाषा को अपनाने की प्रवृत्ति तेज हो रही है, जो नई पीढ़ी को वैश्वीकरण की दुनिया में प्रवेश दिला सकती है।
सवाल हिंदी के आभामंडल का
हिंदी के साथ एक और संकट है -भोजपुरी और मैथिली जैसी कथित बोलियों का स्वतंत्र भाषा के तौर पर उभरना। इन भाषाओं के लोग नहीं चाहते कि उनकी भाषा को हिंदी की एक बोली के रूप में पहचाना जाए। वे अपनी भाषा को एक स्वतंत्र भाषा मानते हैं। भोजपुरी फिल्मों ने हिंदी फिल्मों से अलग न केवल अपनी खास पहचान बनाई है, बल्कि काफी लोकप्रियता भी हासिल की है, जो इस रुझान का एक और संकेत है। मैथिली तो पहले ही संविधान की आठवीं अनुसूची में एक अलग भाषा के रूप में शामिल की जा चुकी है। ऐसी दूसरी भाषाएं भी हैं, जिन्हें आज हिंदी की बोली के रूप में जाना जाता है। कल को ये भाषाएं स्वतंत्र भाषा के रूप में उभरती हुई हिंदी की छत्रछाया से बाहर आ सकती हैं। इसका हिंदी के आभामंडल पर क्या असर होगा?
हकीकत यह है कि आकाशवाणी छाप हिंदी, जो पूरे उत्तर भारत में आम बोलचाल में प्रचलित फारसी मूल वाले शब्दों की जगह जानबूझ कर संस्कृत शब्दों को रखती है, लंबे समय तक नहीं चल सकती। भाषाएं स्टूडियो में नहीं बनाई जा सकतीं, ये तो गलियों से ही निकल कर आती हैं। आकाशवाणी छाप हिंदी इस मायने में संस्कृत जैसी है, जो एक सीमित अभिजात तबके की भाषा थी और इसलिए समूह की भाषा के रूप में जीवित नहीं रह सकी। संस्कृत मतलब परिष्कृत और परिष्कृत भाषा सिर्फ एलीट या अभिजन ही बोल सकते हैं। संस्कृत नाटकों में महिलाओं और नाबालिग पात्रों को प्राकृत (आम लोगों की अपरिष्कृत भाषा) बोलते देखा जा सकता है, मुख्य पात्र भले देवभाषा में बात करते हों। महात्मा बुद्ध ने संस्कृत की बजाय उत्तर भारत में प्रचलित आम भाषाओं को चुना, क्योंकि वे अपनी बात आम लोगों तक पहुंचाना चाहते थे।
अगर साहित्यिक हिंदी को समर्थक नहीं मिल रहा है और हिंदी फिल्मों के भी हिंदी पोस्टर नहीं लग रहे हैं, तो फिर हिंदी का क्या भविष्य है? इस सवाल का जवाब दरअसल इन्क्लूसिव ग्रोथ और वैश्वीकरण से जुड़ा है। किसी भाषा का रुका हुआ विकास उस समाज के रुके हुए विकास का सूचक है। यह कोई संयोग नहीं है कि देश के जिन पिछड़े राज्यों के लिए बिमारू (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) शब्द चलाया गया, वे हिंदीभाषी राज्य हैं। जब भी किसी क्षेत्र में आबादी का एक छोटा सा ऊपरी हिस्सा आधुनिकता को अपनाता है, तो वह आधुनिकता की भाषा अपनाते हुए स्थानीय भाषा से दूरी बना लेता है। हिंदीभाषी इलाकों के साथ यही हुआ है। इन क्षेत्रों में आधुनिकता ऊपर के एक छोटे से हिस्से में आई और आबादी के इस हिस्से ने अंग्रेजी को अपना लिया। इसके उलट अगर पूरा समाज आधुनिक जीवनशैली को अपना ले तो उसकी अपनी भाषा विकसित होगी। इसीलिए आर्थिक बदलाव हिंदी के लिए महत्वपूर्ण है।
गढ़ेंगे नई हिंदी
जब ये क्षेत्र संरचनागत बदलावों से गुजरेंगे और लोग गैरपरंपरागत पेशों को अपनाएंगे तो उनके बीच के जातीय संबंध बदलेंगे, सामाजिक सत्ता का संतुलन बदलेगा और लोगों की भाषा बदलेगी, क्योंकि अपने जीवन के इन नए ट्रांजैक्शंस (लेनदेन) को व्यक्त करने के लिए लोगों को नए शब्द और नई अभिव्यक्तियां गढ़नी होंगी। बहुत सारे शब्द अंग्रेजी से लिए जाएंगे और उसमें कोई दिक्कत नहीं है।
नई प्रगति और समृद्धि से युक्त नए भौतिक जीवन का निर्माण करते हुए लोग नई भाषा भी गढ़ेंगे और यह नई हिंदी होगी। हिंदी अखबारों में भी इस प्रवृत्ति की झलक मिलेगी। लेकिन, बड़े पैमाने पर ऐसा हो, इसके लिए व्यापक स्तर पर लोगों को विकास प्रक्रिया में शामिल करना होगा। और यह काम हिंदीभाषी राज्यों में बुनियादी राजनीतिक सशक्तीकरण और प्रशासनिक सुधारों के बगैर संभव नहीं है। इन्क्लूसिव ग्रोथ की लड़ाई, माओवाद के खिलाफ लड़ाई और हिंदी की अस्मिता की लड़ाई - ये तीनों लड़ाइयां, दरअसल काफी हद तक एक ही हैं"।
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